एक रैली ऐसी हुई
पूरे शहर में
खलबली मच गई
बडे बडे पोस्टरों से
पाट दी गई
हर चारदीवारी ।
भौंडे बेशक्ल
नेताओं की
बनावटी मुद्राएँ
चहुँ-ओर निहारे
आड़े-तिरछे
तोरण द्वार
सड़को की
शोभा निखारे
दूर-दराज के
गांवों से
भूखे नंगे
लोग पधारे ।
बस से
ट्रक से
रेलगाड़ी से
बोला बेकामों ने
शहर पे धावा
शहर के
सभी मैदानों पर
लगा के तम्बू
नाच नचाया
सुबह सबेरे
गंदगी फैला
चले नमूने
सज संवरकर
किसी मंडली मे
बैंड बाजा
किसी मे केवल
रहे बाराती
लेकिन सबने
थामे बैनर
किया जयकार
चमचों की भाँती
सारे सड़को को जाम किया
सबका जीना हराम किया
हल्ला करते
धूल उड़ाते
पहुंचे गधे सब
बड़े मैदान
खैराती लिट्टी-चोखा खाकर
किया सबने
पूरी सुबह आराम
बढ़ने लगी जब जन-बेताबी
आयी तभी
नेता की गाड़ी
गाड़ी से नेता
मंच पे उतरे
साथ मे उनके
बीबी बच्चे
सबने थे पहने
रंगीन चश्में
जनता ने मारी
फिर जयकार
और शुरू हुए
शब्दों के वार
नेताजी जब
संकल्प लेकर
दे रहे थे
सत्ता को चेतावनी
हुआ कुछ यूँ
की उसी समय पर
कर बैठा मैं
एक नादानी
गलती ऐसी कर ली मैंने
याद आ गयी
मरी हुयी नानी
शहर के उधर से
इधर तक आना
मानो एक पर्वत चहरना था
उस पागल हुजूम
के अन्दर से
नामुमकिन सा
निकलना था
लगा रहा मैं
दो-तीन घंटे
फूँक फूँक कर
कदम बढाया
गिरते पड़ते जब
बाहर निकला तो
सहसा यह
दिमाग मे आया
'प्रजातंत्र का
मूलमंत्र तो
वाकई अब
बदल गया है
नेता जी जो
धूल फांकते
चलते थे
शहर और
गाँव गाँव मे
अब बदल गए है
पूरे- पूरे
गतिविधियों और
हाव-भाव से
संदेश पहुचाने को अपना
अब वह भला क्यों
मरते फिरेंगे
अब जब भी
कहनी हो कुछ बात
जनता को यूँ ही
इक्कट्ठा करेंगे
जनता और शहर की
ऐसी तैसी
वो तो
अपना दम देखेंगे.'
Friday, November 30, 2007
Tuesday, November 27, 2007
एक मेला
एक बहुत बड़ा मेला लगता है
कहने को पशुओं का
पर भला
जानवरों को मेले से क्या मतलब
मेला तो
मनुष्यों का है
- रंग-बिरंगे लोग
रंग बिरंगी दुकाने लगाते हैं
सपने सजाते हैं
और हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, कुत्ते, चिडिया आदि
खरीदने बेचने के बहाने
गज-ग्राह की युद्धस्थली पर
मिलजुल कर मजा करते हैं।
थिएटर देखते हैं
जिसमे भाँती-भाँती की
सुडौल और बेडौल लडकियां
फूहड़ गानों पे थिरकती हैं
गंवई लड़के
उनपर चिट्ठियाँ, गुटखे, कपडे, दिल आदि
फेंकते हैं।
जादूगर
अपना तिलस्म
बीछाते हैं
और हाथ की सफाई से
खूब पैसा बटोरते हैं।
झूलेवाले
पुराने खटारे झूलों पर
बच्चे बूढों को
बेखौफ झुलाते हैं
लोग ख़ुशी से
किल्लारियाँ मारते हैं।
तरह तरह के पकवान
सजते हैं
टेंट के होटलों में
उछले दामों पर
धूल मे सने
छोले भटूरे, मिठाईयां, झींगा, मुर्गे आदि
लोग चाव से खाते हैं
दो बड़ी नदियों के
संगम पर बसे इस मेले में
ताजी मछलियाँ नही मिलती लेकिन
आंध्रा के बर्फ में जमे
टुकडों से ही संतोष करना पड़ता है।
और भी ना जाने कितनी चीज़ें
मिलती है मेले मे
घर-गृहस्थी की वस्तुएं, सस्ते आभूषण, साज-सज्जा के सामन आदि
और
अल्कतरे की घिरनी और सीटी भी
मानो सबकुछ है यहाँ
और सबकुछ चलता है
संतो के प्रवचन से लेकर
चोर पाकिटमारो
की कलाकारी तक.
दूर दराज से
लोग आते है मेले मे
सडको पर खुले मे
सोते हैं
आसपास की धरती को
अपने निष्काश से
खादित करते हैं
सुबह शाम
और दिन में
प्रशासन
निष्कासित गंदगी को
मिटटी से ढँक कर
चूने से चिन्हित कर देता है
इतनी भीड़ में भी
कदमों तले मल नही आता
लड़ाईयां भी नही होती
रेप खून और अपहरण भी नही
पशु तो सिर्फ बिकते हैं यहाँ
लाखों-लाख के सौदे
चुपचाप
कर लिए जाते हैं
लोग मस्त होकर
घर जाते हैं
और इंसानों का यह मेला
चलता रहता है
साल दर साल.
कहने को पशुओं का
पर भला
जानवरों को मेले से क्या मतलब
मेला तो
मनुष्यों का है
- रंग-बिरंगे लोग
रंग बिरंगी दुकाने लगाते हैं
सपने सजाते हैं
और हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, कुत्ते, चिडिया आदि
खरीदने बेचने के बहाने
गज-ग्राह की युद्धस्थली पर
मिलजुल कर मजा करते हैं।
थिएटर देखते हैं
जिसमे भाँती-भाँती की
सुडौल और बेडौल लडकियां
फूहड़ गानों पे थिरकती हैं
गंवई लड़के
उनपर चिट्ठियाँ, गुटखे, कपडे, दिल आदि
फेंकते हैं।
जादूगर
अपना तिलस्म
बीछाते हैं
और हाथ की सफाई से
खूब पैसा बटोरते हैं।
झूलेवाले
पुराने खटारे झूलों पर
बच्चे बूढों को
बेखौफ झुलाते हैं
लोग ख़ुशी से
किल्लारियाँ मारते हैं।
तरह तरह के पकवान
सजते हैं
टेंट के होटलों में
उछले दामों पर
धूल मे सने
छोले भटूरे, मिठाईयां, झींगा, मुर्गे आदि
लोग चाव से खाते हैं
दो बड़ी नदियों के
संगम पर बसे इस मेले में
ताजी मछलियाँ नही मिलती लेकिन
आंध्रा के बर्फ में जमे
टुकडों से ही संतोष करना पड़ता है।
और भी ना जाने कितनी चीज़ें
मिलती है मेले मे
घर-गृहस्थी की वस्तुएं, सस्ते आभूषण, साज-सज्जा के सामन आदि
और
अल्कतरे की घिरनी और सीटी भी
मानो सबकुछ है यहाँ
और सबकुछ चलता है
संतो के प्रवचन से लेकर
चोर पाकिटमारो
की कलाकारी तक.
दूर दराज से
लोग आते है मेले मे
सडको पर खुले मे
सोते हैं
आसपास की धरती को
अपने निष्काश से
खादित करते हैं
सुबह शाम
और दिन में
प्रशासन
निष्कासित गंदगी को
मिटटी से ढँक कर
चूने से चिन्हित कर देता है
इतनी भीड़ में भी
कदमों तले मल नही आता
लड़ाईयां भी नही होती
रेप खून और अपहरण भी नही
पशु तो सिर्फ बिकते हैं यहाँ
लाखों-लाख के सौदे
चुपचाप
कर लिए जाते हैं
लोग मस्त होकर
घर जाते हैं
और इंसानों का यह मेला
चलता रहता है
साल दर साल.
Saturday, November 24, 2007
एक शहर
यह शहर
मरता नही है ।
अतीत के बोझ से दबा
अपने वर्तमान में
यह सिर्फ फूल रहा है
फल नही पाता।
वक़्त के थपेडों
से जर्जर
इसकी धमनियाँ
सह नहीं पाती सैलाब
जो दिन प्रतिदिन
बढ़ता ही लगता है
पर वो फटती भी नहीं।
इसकी झुर्रिदार छाती के
बेतरतीब गोदने
इसकी नग्नता को
कुछ ज्यादा ही वीभत्स बना देते हैं
पर ये नित नए डिजाईन बनाता है खुद पर।
इसका फूला पेट
काश
इसकी सम्पन्नता का द्योतक होता
इसमें तो गैस की बीमारी है
शायद इसीसे
इसका हाजमा दुरुस्त नही रहता
- दस्त और उल्टियां
हर वक़्त घिनाये रहता है
इसके वमन को
स्वच्छ हवा मिलती है
एक आदरणीय विसर्जन कहाँ यहाँ ।
गठिया-ग्रस्त इसके घुटने
लगता है अब जवाब देंगे
लेकिन
लगे रहते हैं
घसीटते हुए छिले तलवे
जमीं पे इसे
एक अच्छी पकड़ भी नहीं देते
अपनी बेजान बांहों
को आड़े तिरछे
फैलाता हुआ
यह किसी तरह
जमा हुआ है।
दिल और दिमाग
दोनो में
फफूंद सा लग गया है इसके
बेचैन यह
हमेशा तड़पता रहता है
पर मरता नही है।
कुछ नहीं ऐसा
जो इसके जीवन को
एक मतलब देता
लेकिन यह नही समझता
अपने प्रहरियों के प्रहार सहता है
और जीता रहता है
मरता नही है।
मरता नही है ।
अतीत के बोझ से दबा
अपने वर्तमान में
यह सिर्फ फूल रहा है
फल नही पाता।
वक़्त के थपेडों
से जर्जर
इसकी धमनियाँ
सह नहीं पाती सैलाब
जो दिन प्रतिदिन
बढ़ता ही लगता है
पर वो फटती भी नहीं।
इसकी झुर्रिदार छाती के
बेतरतीब गोदने
इसकी नग्नता को
कुछ ज्यादा ही वीभत्स बना देते हैं
पर ये नित नए डिजाईन बनाता है खुद पर।
इसका फूला पेट
काश
इसकी सम्पन्नता का द्योतक होता
इसमें तो गैस की बीमारी है
शायद इसीसे
इसका हाजमा दुरुस्त नही रहता
- दस्त और उल्टियां
हर वक़्त घिनाये रहता है
इसके वमन को
स्वच्छ हवा मिलती है
एक आदरणीय विसर्जन कहाँ यहाँ ।
गठिया-ग्रस्त इसके घुटने
लगता है अब जवाब देंगे
लेकिन
लगे रहते हैं
घसीटते हुए छिले तलवे
जमीं पे इसे
एक अच्छी पकड़ भी नहीं देते
अपनी बेजान बांहों
को आड़े तिरछे
फैलाता हुआ
यह किसी तरह
जमा हुआ है।
दिल और दिमाग
दोनो में
फफूंद सा लग गया है इसके
बेचैन यह
हमेशा तड़पता रहता है
पर मरता नही है।
कुछ नहीं ऐसा
जो इसके जीवन को
एक मतलब देता
लेकिन यह नही समझता
अपने प्रहरियों के प्रहार सहता है
और जीता रहता है
मरता नही है।
Thursday, November 22, 2007
एक पुलिसवाला
पुलिस-वाले भी
अजीब होते हैं
थोड़े चोर
और बड़े बेशरम
बड़ी बेशर्मी से थोड़ा चुराते है
पाकिट काटते तो नहीं
पर पाकिट मारते ज़रूर हैं
- जन-सेवार्थ।
अपने कंधो पर
बडे शान से पहनते हैं ये सितारे और पट्टियां
और कभी-कभार
तमगे भी
जो की अक्सर
झूठी रिपोर्टों के एवज
इन्हें भेंट किये जाते हैं
और भी काफ़ी भेंटे
लेते और देते हैं ये
टेंपो-वालो से चंदे
रिक्शा-वालो को डंडे
दारु-वालो से निप
मोटर-वालो से टिप
कमजोरों को गालियाँ
अपने घरवालो से तालियाँ
ऐसे ही एक पुलिसवाले है
हमारी तरफ़
बहुत फख्र है उन्हें
की बंगलादेश से भाग कर
उन्होंने इस अनजान देश मे
अपना डंडा चमकाया है
हवलदार से दारोगा तक
बहुत दूर आए हैं
जुर्म की दुनिया मे
खूब कमाया
इधर-उधर कर
पूरा परिवार चलाया
रीटायरमेन्ट मे कुछ महीने बचे हैं
फिर भी चलते रहना चाहते हैं
बस छोटीवाली का ब्याह हो जाए
भेंट के आदान-प्रदान में
लाइन-हाजिर हो गए हैं
और
भेंट देकर पुनः किसी
मोटी जगह जाना चाहते हैं
जहाँ मोटी भेंट मिलेगी
संयोग है
कि भेंट कि अर्थव्यवस्था
थोडी चरमरा सी गयी है आजकल
और उनके अफसरान
उनसे भेंट नही कर पाते है
वरना ना जाने ये
कितनी भेंटे और लपेटते
भेंटो से भी भला पेट भरता है कभी.
अजीब होते हैं
थोड़े चोर
और बड़े बेशरम
बड़ी बेशर्मी से थोड़ा चुराते है
पाकिट काटते तो नहीं
पर पाकिट मारते ज़रूर हैं
- जन-सेवार्थ।
अपने कंधो पर
बडे शान से पहनते हैं ये सितारे और पट्टियां
और कभी-कभार
तमगे भी
जो की अक्सर
झूठी रिपोर्टों के एवज
इन्हें भेंट किये जाते हैं
और भी काफ़ी भेंटे
लेते और देते हैं ये
टेंपो-वालो से चंदे
रिक्शा-वालो को डंडे
दारु-वालो से निप
मोटर-वालो से टिप
कमजोरों को गालियाँ
अपने घरवालो से तालियाँ
ऐसे ही एक पुलिसवाले है
हमारी तरफ़
बहुत फख्र है उन्हें
की बंगलादेश से भाग कर
उन्होंने इस अनजान देश मे
अपना डंडा चमकाया है
हवलदार से दारोगा तक
बहुत दूर आए हैं
जुर्म की दुनिया मे
खूब कमाया
इधर-उधर कर
पूरा परिवार चलाया
रीटायरमेन्ट मे कुछ महीने बचे हैं
फिर भी चलते रहना चाहते हैं
बस छोटीवाली का ब्याह हो जाए
भेंट के आदान-प्रदान में
लाइन-हाजिर हो गए हैं
और
भेंट देकर पुनः किसी
मोटी जगह जाना चाहते हैं
जहाँ मोटी भेंट मिलेगी
संयोग है
कि भेंट कि अर्थव्यवस्था
थोडी चरमरा सी गयी है आजकल
और उनके अफसरान
उनसे भेंट नही कर पाते है
वरना ना जाने ये
कितनी भेंटे और लपेटते
भेंटो से भी भला पेट भरता है कभी.
Wednesday, November 14, 2007
एक कट्टा
देखा है कभी
किसी कट्टे को
कार्बाइन कि तरह चलते हुए,
हमारी तरफ एक ऐसा ही है
साइकिल के डंडो से पनपा
यह बेकाम हथियार
शॉट पर शॉट चलाता है
भर दो इसका पेट
और थमा दो एक कन्धा
संभालने को
यह दनादन चलता है
कट्टा है पर
मशीन-गन को मात देता है
जरा घोडा तो दबाये रखो
क्या जोड़ी बनती है
घोड़े पर कट्टा
या फिर
कट्टे पर घोड़ा
वही पुरानी
कहावत चरितार्थ
करती है यह
'कमयोगियों' की जात
' दो समान कहीं भी रक्खो
नही रहेंगे साथ'.
किसी कट्टे को
कार्बाइन कि तरह चलते हुए,
हमारी तरफ एक ऐसा ही है
साइकिल के डंडो से पनपा
यह बेकाम हथियार
शॉट पर शॉट चलाता है
भर दो इसका पेट
और थमा दो एक कन्धा
संभालने को
यह दनादन चलता है
कट्टा है पर
मशीन-गन को मात देता है
जरा घोडा तो दबाये रखो
क्या जोड़ी बनती है
घोड़े पर कट्टा
या फिर
कट्टे पर घोड़ा
वही पुरानी
कहावत चरितार्थ
करती है यह
'कमयोगियों' की जात
' दो समान कहीं भी रक्खो
नही रहेंगे साथ'.
Tuesday, November 13, 2007
एक घोड़ा
यह घोड़ा भी एक जानवर है
वही घिसा-पिटा सामाजिक वाला
दौड़ता है
लेकिन
लंबी दूरी नही तय कर पाता
'कम' में ही संतुष्ट
और कमतर प्रयास
वह सिर्फ जीता है
बिना आधार
कभी इधर
कभी उधर
कभी इधर-उधर
'जहा कहीं
हो संत समागम
लगे वहीं घोड़े का आसन'
यह घोड़ा
आम घोडों से अलग है।
कभी
किसी घोड़े के पीछे ऊँगली करके तो देखो
यह घोड़ा दुल्लत्ती नहीं मारता
सिर्फ हिनहिनाता है
सहता है
अपनी बेबसी
को नए आयाम देता है
'कम' और 'कर्म'
के बीच के
अर्ध-व्यंजन को यह कुछ नही समझता है
अपनी जड़ता बरकरार रखता है
'कम' में पूरा विश्वास करता है
'कमी' कि सत्ता
के अधीन रहता है
खुद को
'कमयोगी' कहता है.
वही घिसा-पिटा सामाजिक वाला
दौड़ता है
लेकिन
लंबी दूरी नही तय कर पाता
'कम' में ही संतुष्ट
और कमतर प्रयास
वह सिर्फ जीता है
बिना आधार
कभी इधर
कभी उधर
कभी इधर-उधर
'जहा कहीं
हो संत समागम
लगे वहीं घोड़े का आसन'
यह घोड़ा
आम घोडों से अलग है।
कभी
किसी घोड़े के पीछे ऊँगली करके तो देखो
यह घोड़ा दुल्लत्ती नहीं मारता
सिर्फ हिनहिनाता है
सहता है
अपनी बेबसी
को नए आयाम देता है
'कम' और 'कर्म'
के बीच के
अर्ध-व्यंजन को यह कुछ नही समझता है
अपनी जड़ता बरकरार रखता है
'कम' में पूरा विश्वास करता है
'कमी' कि सत्ता
के अधीन रहता है
खुद को
'कमयोगी' कहता है.
Monday, November 12, 2007
एक रिक्शावाला
किसमें है दम -
मेले के रेलमपेल में
या
मलमास की सरल शांति में.
किसके आतुर रहते हो तुम -
जगजगाती ठसाठस
यात्रियों की लम्बी लाईन
या
हवालदार के डंडे से दूर
एक मार्ग सुगम.
कब रहता है
तुम्हारी धमनियों में
दबाव चरम पर
कब होता है
मस्तिष्क का उबाल
नरम-तर.
सच बताओ,
कब आता है मजा...
बिना ठिठके
उसने पीछे देखा
गली से निकले एक कुत्ते से बचा
और खखार कर कुछ यूँ कहा-
साहब, यह तो नूतन और सनातन की लड़ाई है
मरी-मरी इन सडको के पृष्ठ पर
जब सपने चमकते हैं
तो किसे मजा नही आता है.
मोटरों से टक्कर, और
उसके बाद का थप्पड़ है
तो उन सबके बाद की इंग्लिश बोतल भी है.
और दूसरी तरफ़
एक नियमितता है
हर दिन जाना-पहचाना
सवारियों के इंतज़ार में
दम भरने की फुरसत
और लंबे रास्तों के बाद
चिलम का मीठा दम भी है.
माना,
कभी-कभी गीले भात से ही
संतोष करना पड़ता है
पर साहब,
रोज-रोज इंग्लिश बोतल भी तो सही नहीं.
मेले के रेलमपेल में
या
मलमास की सरल शांति में.
किसके आतुर रहते हो तुम -
जगजगाती ठसाठस
यात्रियों की लम्बी लाईन
या
हवालदार के डंडे से दूर
एक मार्ग सुगम.
कब रहता है
तुम्हारी धमनियों में
दबाव चरम पर
कब होता है
मस्तिष्क का उबाल
नरम-तर.
सच बताओ,
कब आता है मजा...
बिना ठिठके
उसने पीछे देखा
गली से निकले एक कुत्ते से बचा
और खखार कर कुछ यूँ कहा-
साहब, यह तो नूतन और सनातन की लड़ाई है
मरी-मरी इन सडको के पृष्ठ पर
जब सपने चमकते हैं
तो किसे मजा नही आता है.
मोटरों से टक्कर, और
उसके बाद का थप्पड़ है
तो उन सबके बाद की इंग्लिश बोतल भी है.
और दूसरी तरफ़
एक नियमितता है
हर दिन जाना-पहचाना
सवारियों के इंतज़ार में
दम भरने की फुरसत
और लंबे रास्तों के बाद
चिलम का मीठा दम भी है.
माना,
कभी-कभी गीले भात से ही
संतोष करना पड़ता है
पर साहब,
रोज-रोज इंग्लिश बोतल भी तो सही नहीं.
Subscribe to:
Posts (Atom)