अन्य किसी साधन के अभाव
मे भी
एक रिक्शेवाले से
एकाध रुपये के लिए
बड़ी शालीनता से झगड़ते हुए
एक बेरोजगार से
एक बार मिलना हो गया।
बातों-बातों में
उनकी हैसियत का पता चला
और कौतूहल बढ़ा -
महोदय ने अपनी बेरोजगारी
को अच्छे से
पहना था, या
बेरोजगारी उनपर
अच्छी तरह चढ़ गयी थी
यह कहना कठिन है
लेकिन
इतना तो कहूँगा ही
की वो जंच रहे थे।
वह सरल समर्पण
वह अनाच्छदित निस्तेज
वह शांत अनुग्रहण
एक पढे लिखे बेरोजार मे ही
संभव है
वैसे भी,
अनपढ़ जाहिल कहाँ
बेरोजगार रहते हैं।
वो अधेड़ स्नातकोत्तर
इस तथ्य को
बखूबी जानते थे
पर अपनी शिक्षा की
अवमानना नही कर सकते थे
शायद इसीलिए
लगभग दो दशकों की
लगभग बेकाम पढाई
के बाद भी
आशा रखते थे कि
शायद
कोरियन भाषा के
नए डिप्लोमा कोर्स
से ही उनका भला हो जाये।
तब तक बाप के खेती की
कमाई मे से
रिक्शेवालों से
एकाध रूपया बचाकर
चाय-पान चलाते रहेंगे।
Friday, December 7, 2007
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