Wednesday, March 5, 2008

एक अजीब बात

इस अधमरे शहर में
आधे मरे भरे पड़े हैं
मुर्दों को वो जला देते हैं
जीवित को मार देते हैं
और ख़ुद जीने का
वीभत्स ढोंग रचते हैं
उनमें से हर अधमरा
तेजी से कुलबुलाता है
अन्य से नज़र मिलते ही -
जीने से ज़्यादा
एक जीवित छवि ज़रूरी है
जो कुछ भी गड़बड़ हो
ज़रा छुप के हो
बाहर और भीतर के बीच का
घटिया विरोधाभास
उनके लिए
एक घनचक्कर बन जाता है
जब कुछ करने की बारी आती है
- गाली से उनको कष्ट है
पुलिस की गाली
सह लेते हैं लेकिन
पता है ग़लत है
रह लेते हैं लेकिन
ज़िंदगी की कमजोरी
से ग्रस्त है जीवन
इसीलिए
ताक़त खोजते हैं
छोटी से छोटी जिम्मेदारी का
बड़े से बड़ा
बदइस्तेमाल खोजते हैं
वो सब सोचते हैं
ऊपर और नीचे देखते हैं
अपने अधकुचले आत्म-सम्मान को
अपने घरों में,
अपने मातहतों पर,
अपने से नीचे पडी गंदगी,
जिस किसी पर
जहाँ भी हो जाए
थोड़ा चार्ज कर लेते हैं
खीसें निपोरते आगे बढ़ते हैं
किसी और से खाते हैं
किसी और को खिलाते हैं
कहीं और दुम हिलाते हैं
हर घड़ी
एक क्रांति दबाते हैं
हर एक मौका खोते जाते हैं
हर बदलाव से डरते हैं
फिर भी घमंड करते हैं
बड़ी अजीब बात है ।