बीते दिनों
एक क्रिकेट मैच हुआ
हार के बढ़ते क्रम ने
पूरे देश को एक कर दिया
हारने की आदत तो
पुरानी ही है अपनी
नया यह रहा कि
इस बार तेरह से हारे
ऐसा सोचा सबने
और लगे हल्ला करने
बयानबाजियां शुरू ही हुयी थी
कि विरोधियों ने
जख्म में मिर्ची लगा दिया
एक सरदार फिरकीबाज को
आनन-फानन नस्लवादी बना दिया
ऐसा भी कही होता है
'माँ की' और 'मंकी' में
जैसे कोई अंतर ही नही
सरेआम बेईमानियाँ
और ऐसे लांछन
वह भी हराने के बाद
पंद्रह लगातार जीतों से
संतोष नही था जालिमों को
सोलहवें के लिए इतना कुछ
हम कैसे चुप बैठ सकते थे
हमने अखबारों में बोला
मीटिंगों में हल्ला किया
घर लॉट आने की धमकी दी
बदले के जोश में
उनकी भी शिक़ायत की
सबको लगा कुछ तो होने वाला है
और हुआ भी
बारहवें और तेरहवें को
बदल दिया गया
और हम खुश हो गए
बेईमानों के सरदार से
सामना होते ही
हम अपने राष्ट्रपिता की
सभ्य संतान बन गए
सीनाजोरी का जवाब
बहुत तमाशा करके
गांधीगिरी से दे दिया
सब भूल कर
एक बार फिर हारने के लिए
कमर कस लिया ।
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2 comments:
काफ़ी बेहतरीन! लेकिन सोलहवा तो हम जीत गए भाई!
नही नही... हम सत्रहवां जीतने नहीं दिए ना
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