एक प्यार निराला
सबसे आला
बोला सर उठाए -
'हमसे बड़का केहू नाही
हम हूँ सबसे प्यारा ।
हम हूँ गुरु प्रति
सम्पूर्ण समर्पण
हम हूँ ज्ञान को
कृतज्ञ अर्पण
जनेंद्रियों से
ऊपर उठकर
ज्ञानेन्द्रिय का
उत्कार हम हूँ
हम में कछु
कलुषित नाही।
डुगडुगी बजा कर
ज्ञान गणित के
जब मास्साब ने
अन्धकार भगाया
प्रकाश के साथ
मानस मंदिर में
एक नटखट हलचल
भी आया ।
उत्पात मचाये
ध्यान बन्टाये
लाख समझाए
वह ना माने
वह था अंश हमारा .
जिस गणित से
डरती थी वह
आतुर थी अब
उसी को लेकर
लेकिन प्रकोप
हमरा ऐसा कि
मन में बसी थी
बस एक पिक्चर -
वह बकरी-दाढी वाला .
वह गणित का
ज्ञाता हीरो
जमता है क्या
सर मुंडवा के
और सर के सर पे
वह काला तिल
हमरी तेज में
दे बैठी दिल
वह कोमल चंचल बाला. '
सपनो में बेखबर
है वो हर दिन
ज़ल्द आएंगे
इम्तहान के दुर्दिन
तेज हैं अभी
गुरु-आसक्ति की लहरें
उन लहरों में
भोला दिल उबले
अध्ययन कक्ष में
शायरी बरसे
ज्ञान के कोने
ध्यान को तरसें
ऐसा है उसका हाल.
प्यार तो प्यार से
फेल करावायगा
डैडी का रौद्र
रूप दिखायेगा
बचपन के सपने को
आहत करेगा
ना मिलेगी शिक्षा
ना मिलेंगे पिया
जब तक डीन्गू
खुमारी उतरेगी
हो जायेगी
काफी लेट
एहसास होगा
तब जाकर जब
चढा दी जायेगी
किसी अन्य को भेंट .
Sunday, December 16, 2007
Thursday, December 13, 2007
एक बच्चे का खून
अखबारों में एक ताज़ा खबर
निकली है आजकल
गुडगाँव में
दो बच्चों ने
एक तीसरे का खून कर दिया।
मरा हुआ अपने आप को
बच्चा कहने मे
शायद संकोच करता रहेगा
अपनी छोटी सी दुनिया का
एक बड़ा बाहुबली जो था .
अपने घर-परिवार में उसने
बड़प्पन सीखा होगा
जिसकी लाठी उसकी भैंस
देखा होगा
रंगदारी का ज़माना है
ज़रूर समझा होगा
साथियों को ठोकना-पीटना-सताना
बहुत सरल लगा होगा
बहुत मज़ा आया होगा
दूसरे बच्चों का
बचपन चुराने में .
कौन सी बड़ी बात है कि
एकाध पीड़ित बच्चो ने
अपना बचपन दाँव पर लगा
उसका बड़प्पन छीन लिया
मुझे तो दुःख नही होता है.
निकली है आजकल
गुडगाँव में
दो बच्चों ने
एक तीसरे का खून कर दिया।
मरा हुआ अपने आप को
बच्चा कहने मे
शायद संकोच करता रहेगा
अपनी छोटी सी दुनिया का
एक बड़ा बाहुबली जो था .
अपने घर-परिवार में उसने
बड़प्पन सीखा होगा
जिसकी लाठी उसकी भैंस
देखा होगा
रंगदारी का ज़माना है
ज़रूर समझा होगा
साथियों को ठोकना-पीटना-सताना
बहुत सरल लगा होगा
बहुत मज़ा आया होगा
दूसरे बच्चों का
बचपन चुराने में .
कौन सी बड़ी बात है कि
एकाध पीड़ित बच्चो ने
अपना बचपन दाँव पर लगा
उसका बड़प्पन छीन लिया
मुझे तो दुःख नही होता है.
Tuesday, December 11, 2007
एक तुम
तुम तो बस तुम ही हो
अपने आप को बचाने के लिए
मुझे कहाँ छोड़ोगे तुम
ऐसा भी नही की तुम्हे
कुछ खतरा हो मुझसे
मैं भला किसका
क्या बिगाड़ लूंगा
बस चंद विचार
और भावनाएँ
जिनकी अभिव्यक्ति
मैं रोक नही सकता
ठीक उसी तरह
जैसे तुम
अपनी प्रतिक्रिया नही रोक सकते
तुम्हारी भौहें
तन जाती हैं
नथुने फूल जाते हैं
भुजाएं फड़कती हैं
और जबान
बेलगाम हो जाती है
आख़िर क्यों ?
शायद डरते हो तुम
पर मैं भला
क्या बिगाड़ लूंगा
हाँ, मेरे विचार
शायद तुम्हे बदल डालें
तुम्हे तुम से
बहुत प्यार है
डरते हो तुम
की तुम बदल जाओगे
और अपने आप को
बचाने के लिए
मुझे कहाँ छोड़ोगे तुम।
अपने आप को बचाने के लिए
मुझे कहाँ छोड़ोगे तुम
ऐसा भी नही की तुम्हे
कुछ खतरा हो मुझसे
मैं भला किसका
क्या बिगाड़ लूंगा
बस चंद विचार
और भावनाएँ
जिनकी अभिव्यक्ति
मैं रोक नही सकता
ठीक उसी तरह
जैसे तुम
अपनी प्रतिक्रिया नही रोक सकते
तुम्हारी भौहें
तन जाती हैं
नथुने फूल जाते हैं
भुजाएं फड़कती हैं
और जबान
बेलगाम हो जाती है
आख़िर क्यों ?
शायद डरते हो तुम
पर मैं भला
क्या बिगाड़ लूंगा
हाँ, मेरे विचार
शायद तुम्हे बदल डालें
तुम्हे तुम से
बहुत प्यार है
डरते हो तुम
की तुम बदल जाओगे
और अपने आप को
बचाने के लिए
मुझे कहाँ छोड़ोगे तुम।
Friday, December 7, 2007
एक बेरोजगार
अन्य किसी साधन के अभाव
मे भी
एक रिक्शेवाले से
एकाध रुपये के लिए
बड़ी शालीनता से झगड़ते हुए
एक बेरोजगार से
एक बार मिलना हो गया।
बातों-बातों में
उनकी हैसियत का पता चला
और कौतूहल बढ़ा -
महोदय ने अपनी बेरोजगारी
को अच्छे से
पहना था, या
बेरोजगारी उनपर
अच्छी तरह चढ़ गयी थी
यह कहना कठिन है
लेकिन
इतना तो कहूँगा ही
की वो जंच रहे थे।
वह सरल समर्पण
वह अनाच्छदित निस्तेज
वह शांत अनुग्रहण
एक पढे लिखे बेरोजार मे ही
संभव है
वैसे भी,
अनपढ़ जाहिल कहाँ
बेरोजगार रहते हैं।
वो अधेड़ स्नातकोत्तर
इस तथ्य को
बखूबी जानते थे
पर अपनी शिक्षा की
अवमानना नही कर सकते थे
शायद इसीलिए
लगभग दो दशकों की
लगभग बेकाम पढाई
के बाद भी
आशा रखते थे कि
शायद
कोरियन भाषा के
नए डिप्लोमा कोर्स
से ही उनका भला हो जाये।
तब तक बाप के खेती की
कमाई मे से
रिक्शेवालों से
एकाध रूपया बचाकर
चाय-पान चलाते रहेंगे।
मे भी
एक रिक्शेवाले से
एकाध रुपये के लिए
बड़ी शालीनता से झगड़ते हुए
एक बेरोजगार से
एक बार मिलना हो गया।
बातों-बातों में
उनकी हैसियत का पता चला
और कौतूहल बढ़ा -
महोदय ने अपनी बेरोजगारी
को अच्छे से
पहना था, या
बेरोजगारी उनपर
अच्छी तरह चढ़ गयी थी
यह कहना कठिन है
लेकिन
इतना तो कहूँगा ही
की वो जंच रहे थे।
वह सरल समर्पण
वह अनाच्छदित निस्तेज
वह शांत अनुग्रहण
एक पढे लिखे बेरोजार मे ही
संभव है
वैसे भी,
अनपढ़ जाहिल कहाँ
बेरोजगार रहते हैं।
वो अधेड़ स्नातकोत्तर
इस तथ्य को
बखूबी जानते थे
पर अपनी शिक्षा की
अवमानना नही कर सकते थे
शायद इसीलिए
लगभग दो दशकों की
लगभग बेकाम पढाई
के बाद भी
आशा रखते थे कि
शायद
कोरियन भाषा के
नए डिप्लोमा कोर्स
से ही उनका भला हो जाये।
तब तक बाप के खेती की
कमाई मे से
रिक्शेवालों से
एकाध रूपया बचाकर
चाय-पान चलाते रहेंगे।
Friday, November 30, 2007
एक रैली
एक रैली ऐसी हुई
पूरे शहर में
खलबली मच गई
बडे बडे पोस्टरों से
पाट दी गई
हर चारदीवारी ।
भौंडे बेशक्ल
नेताओं की
बनावटी मुद्राएँ
चहुँ-ओर निहारे
आड़े-तिरछे
तोरण द्वार
सड़को की
शोभा निखारे
दूर-दराज के
गांवों से
भूखे नंगे
लोग पधारे ।
बस से
ट्रक से
रेलगाड़ी से
बोला बेकामों ने
शहर पे धावा
शहर के
सभी मैदानों पर
लगा के तम्बू
नाच नचाया
सुबह सबेरे
गंदगी फैला
चले नमूने
सज संवरकर
किसी मंडली मे
बैंड बाजा
किसी मे केवल
रहे बाराती
लेकिन सबने
थामे बैनर
किया जयकार
चमचों की भाँती
सारे सड़को को जाम किया
सबका जीना हराम किया
हल्ला करते
धूल उड़ाते
पहुंचे गधे सब
बड़े मैदान
खैराती लिट्टी-चोखा खाकर
किया सबने
पूरी सुबह आराम
बढ़ने लगी जब जन-बेताबी
आयी तभी
नेता की गाड़ी
गाड़ी से नेता
मंच पे उतरे
साथ मे उनके
बीबी बच्चे
सबने थे पहने
रंगीन चश्में
जनता ने मारी
फिर जयकार
और शुरू हुए
शब्दों के वार
नेताजी जब
संकल्प लेकर
दे रहे थे
सत्ता को चेतावनी
हुआ कुछ यूँ
की उसी समय पर
कर बैठा मैं
एक नादानी
गलती ऐसी कर ली मैंने
याद आ गयी
मरी हुयी नानी
शहर के उधर से
इधर तक आना
मानो एक पर्वत चहरना था
उस पागल हुजूम
के अन्दर से
नामुमकिन सा
निकलना था
लगा रहा मैं
दो-तीन घंटे
फूँक फूँक कर
कदम बढाया
गिरते पड़ते जब
बाहर निकला तो
सहसा यह
दिमाग मे आया
'प्रजातंत्र का
मूलमंत्र तो
वाकई अब
बदल गया है
नेता जी जो
धूल फांकते
चलते थे
शहर और
गाँव गाँव मे
अब बदल गए है
पूरे- पूरे
गतिविधियों और
हाव-भाव से
संदेश पहुचाने को अपना
अब वह भला क्यों
मरते फिरेंगे
अब जब भी
कहनी हो कुछ बात
जनता को यूँ ही
इक्कट्ठा करेंगे
जनता और शहर की
ऐसी तैसी
वो तो
अपना दम देखेंगे.'
पूरे शहर में
खलबली मच गई
बडे बडे पोस्टरों से
पाट दी गई
हर चारदीवारी ।
भौंडे बेशक्ल
नेताओं की
बनावटी मुद्राएँ
चहुँ-ओर निहारे
आड़े-तिरछे
तोरण द्वार
सड़को की
शोभा निखारे
दूर-दराज के
गांवों से
भूखे नंगे
लोग पधारे ।
बस से
ट्रक से
रेलगाड़ी से
बोला बेकामों ने
शहर पे धावा
शहर के
सभी मैदानों पर
लगा के तम्बू
नाच नचाया
सुबह सबेरे
गंदगी फैला
चले नमूने
सज संवरकर
किसी मंडली मे
बैंड बाजा
किसी मे केवल
रहे बाराती
लेकिन सबने
थामे बैनर
किया जयकार
चमचों की भाँती
सारे सड़को को जाम किया
सबका जीना हराम किया
हल्ला करते
धूल उड़ाते
पहुंचे गधे सब
बड़े मैदान
खैराती लिट्टी-चोखा खाकर
किया सबने
पूरी सुबह आराम
बढ़ने लगी जब जन-बेताबी
आयी तभी
नेता की गाड़ी
गाड़ी से नेता
मंच पे उतरे
साथ मे उनके
बीबी बच्चे
सबने थे पहने
रंगीन चश्में
जनता ने मारी
फिर जयकार
और शुरू हुए
शब्दों के वार
नेताजी जब
संकल्प लेकर
दे रहे थे
सत्ता को चेतावनी
हुआ कुछ यूँ
की उसी समय पर
कर बैठा मैं
एक नादानी
गलती ऐसी कर ली मैंने
याद आ गयी
मरी हुयी नानी
शहर के उधर से
इधर तक आना
मानो एक पर्वत चहरना था
उस पागल हुजूम
के अन्दर से
नामुमकिन सा
निकलना था
लगा रहा मैं
दो-तीन घंटे
फूँक फूँक कर
कदम बढाया
गिरते पड़ते जब
बाहर निकला तो
सहसा यह
दिमाग मे आया
'प्रजातंत्र का
मूलमंत्र तो
वाकई अब
बदल गया है
नेता जी जो
धूल फांकते
चलते थे
शहर और
गाँव गाँव मे
अब बदल गए है
पूरे- पूरे
गतिविधियों और
हाव-भाव से
संदेश पहुचाने को अपना
अब वह भला क्यों
मरते फिरेंगे
अब जब भी
कहनी हो कुछ बात
जनता को यूँ ही
इक्कट्ठा करेंगे
जनता और शहर की
ऐसी तैसी
वो तो
अपना दम देखेंगे.'
Tuesday, November 27, 2007
एक मेला
एक बहुत बड़ा मेला लगता है
कहने को पशुओं का
पर भला
जानवरों को मेले से क्या मतलब
मेला तो
मनुष्यों का है
- रंग-बिरंगे लोग
रंग बिरंगी दुकाने लगाते हैं
सपने सजाते हैं
और हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, कुत्ते, चिडिया आदि
खरीदने बेचने के बहाने
गज-ग्राह की युद्धस्थली पर
मिलजुल कर मजा करते हैं।
थिएटर देखते हैं
जिसमे भाँती-भाँती की
सुडौल और बेडौल लडकियां
फूहड़ गानों पे थिरकती हैं
गंवई लड़के
उनपर चिट्ठियाँ, गुटखे, कपडे, दिल आदि
फेंकते हैं।
जादूगर
अपना तिलस्म
बीछाते हैं
और हाथ की सफाई से
खूब पैसा बटोरते हैं।
झूलेवाले
पुराने खटारे झूलों पर
बच्चे बूढों को
बेखौफ झुलाते हैं
लोग ख़ुशी से
किल्लारियाँ मारते हैं।
तरह तरह के पकवान
सजते हैं
टेंट के होटलों में
उछले दामों पर
धूल मे सने
छोले भटूरे, मिठाईयां, झींगा, मुर्गे आदि
लोग चाव से खाते हैं
दो बड़ी नदियों के
संगम पर बसे इस मेले में
ताजी मछलियाँ नही मिलती लेकिन
आंध्रा के बर्फ में जमे
टुकडों से ही संतोष करना पड़ता है।
और भी ना जाने कितनी चीज़ें
मिलती है मेले मे
घर-गृहस्थी की वस्तुएं, सस्ते आभूषण, साज-सज्जा के सामन आदि
और
अल्कतरे की घिरनी और सीटी भी
मानो सबकुछ है यहाँ
और सबकुछ चलता है
संतो के प्रवचन से लेकर
चोर पाकिटमारो
की कलाकारी तक.
दूर दराज से
लोग आते है मेले मे
सडको पर खुले मे
सोते हैं
आसपास की धरती को
अपने निष्काश से
खादित करते हैं
सुबह शाम
और दिन में
प्रशासन
निष्कासित गंदगी को
मिटटी से ढँक कर
चूने से चिन्हित कर देता है
इतनी भीड़ में भी
कदमों तले मल नही आता
लड़ाईयां भी नही होती
रेप खून और अपहरण भी नही
पशु तो सिर्फ बिकते हैं यहाँ
लाखों-लाख के सौदे
चुपचाप
कर लिए जाते हैं
लोग मस्त होकर
घर जाते हैं
और इंसानों का यह मेला
चलता रहता है
साल दर साल.
कहने को पशुओं का
पर भला
जानवरों को मेले से क्या मतलब
मेला तो
मनुष्यों का है
- रंग-बिरंगे लोग
रंग बिरंगी दुकाने लगाते हैं
सपने सजाते हैं
और हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, कुत्ते, चिडिया आदि
खरीदने बेचने के बहाने
गज-ग्राह की युद्धस्थली पर
मिलजुल कर मजा करते हैं।
थिएटर देखते हैं
जिसमे भाँती-भाँती की
सुडौल और बेडौल लडकियां
फूहड़ गानों पे थिरकती हैं
गंवई लड़के
उनपर चिट्ठियाँ, गुटखे, कपडे, दिल आदि
फेंकते हैं।
जादूगर
अपना तिलस्म
बीछाते हैं
और हाथ की सफाई से
खूब पैसा बटोरते हैं।
झूलेवाले
पुराने खटारे झूलों पर
बच्चे बूढों को
बेखौफ झुलाते हैं
लोग ख़ुशी से
किल्लारियाँ मारते हैं।
तरह तरह के पकवान
सजते हैं
टेंट के होटलों में
उछले दामों पर
धूल मे सने
छोले भटूरे, मिठाईयां, झींगा, मुर्गे आदि
लोग चाव से खाते हैं
दो बड़ी नदियों के
संगम पर बसे इस मेले में
ताजी मछलियाँ नही मिलती लेकिन
आंध्रा के बर्फ में जमे
टुकडों से ही संतोष करना पड़ता है।
और भी ना जाने कितनी चीज़ें
मिलती है मेले मे
घर-गृहस्थी की वस्तुएं, सस्ते आभूषण, साज-सज्जा के सामन आदि
और
अल्कतरे की घिरनी और सीटी भी
मानो सबकुछ है यहाँ
और सबकुछ चलता है
संतो के प्रवचन से लेकर
चोर पाकिटमारो
की कलाकारी तक.
दूर दराज से
लोग आते है मेले मे
सडको पर खुले मे
सोते हैं
आसपास की धरती को
अपने निष्काश से
खादित करते हैं
सुबह शाम
और दिन में
प्रशासन
निष्कासित गंदगी को
मिटटी से ढँक कर
चूने से चिन्हित कर देता है
इतनी भीड़ में भी
कदमों तले मल नही आता
लड़ाईयां भी नही होती
रेप खून और अपहरण भी नही
पशु तो सिर्फ बिकते हैं यहाँ
लाखों-लाख के सौदे
चुपचाप
कर लिए जाते हैं
लोग मस्त होकर
घर जाते हैं
और इंसानों का यह मेला
चलता रहता है
साल दर साल.
Saturday, November 24, 2007
एक शहर
यह शहर
मरता नही है ।
अतीत के बोझ से दबा
अपने वर्तमान में
यह सिर्फ फूल रहा है
फल नही पाता।
वक़्त के थपेडों
से जर्जर
इसकी धमनियाँ
सह नहीं पाती सैलाब
जो दिन प्रतिदिन
बढ़ता ही लगता है
पर वो फटती भी नहीं।
इसकी झुर्रिदार छाती के
बेतरतीब गोदने
इसकी नग्नता को
कुछ ज्यादा ही वीभत्स बना देते हैं
पर ये नित नए डिजाईन बनाता है खुद पर।
इसका फूला पेट
काश
इसकी सम्पन्नता का द्योतक होता
इसमें तो गैस की बीमारी है
शायद इसीसे
इसका हाजमा दुरुस्त नही रहता
- दस्त और उल्टियां
हर वक़्त घिनाये रहता है
इसके वमन को
स्वच्छ हवा मिलती है
एक आदरणीय विसर्जन कहाँ यहाँ ।
गठिया-ग्रस्त इसके घुटने
लगता है अब जवाब देंगे
लेकिन
लगे रहते हैं
घसीटते हुए छिले तलवे
जमीं पे इसे
एक अच्छी पकड़ भी नहीं देते
अपनी बेजान बांहों
को आड़े तिरछे
फैलाता हुआ
यह किसी तरह
जमा हुआ है।
दिल और दिमाग
दोनो में
फफूंद सा लग गया है इसके
बेचैन यह
हमेशा तड़पता रहता है
पर मरता नही है।
कुछ नहीं ऐसा
जो इसके जीवन को
एक मतलब देता
लेकिन यह नही समझता
अपने प्रहरियों के प्रहार सहता है
और जीता रहता है
मरता नही है।
मरता नही है ।
अतीत के बोझ से दबा
अपने वर्तमान में
यह सिर्फ फूल रहा है
फल नही पाता।
वक़्त के थपेडों
से जर्जर
इसकी धमनियाँ
सह नहीं पाती सैलाब
जो दिन प्रतिदिन
बढ़ता ही लगता है
पर वो फटती भी नहीं।
इसकी झुर्रिदार छाती के
बेतरतीब गोदने
इसकी नग्नता को
कुछ ज्यादा ही वीभत्स बना देते हैं
पर ये नित नए डिजाईन बनाता है खुद पर।
इसका फूला पेट
काश
इसकी सम्पन्नता का द्योतक होता
इसमें तो गैस की बीमारी है
शायद इसीसे
इसका हाजमा दुरुस्त नही रहता
- दस्त और उल्टियां
हर वक़्त घिनाये रहता है
इसके वमन को
स्वच्छ हवा मिलती है
एक आदरणीय विसर्जन कहाँ यहाँ ।
गठिया-ग्रस्त इसके घुटने
लगता है अब जवाब देंगे
लेकिन
लगे रहते हैं
घसीटते हुए छिले तलवे
जमीं पे इसे
एक अच्छी पकड़ भी नहीं देते
अपनी बेजान बांहों
को आड़े तिरछे
फैलाता हुआ
यह किसी तरह
जमा हुआ है।
दिल और दिमाग
दोनो में
फफूंद सा लग गया है इसके
बेचैन यह
हमेशा तड़पता रहता है
पर मरता नही है।
कुछ नहीं ऐसा
जो इसके जीवन को
एक मतलब देता
लेकिन यह नही समझता
अपने प्रहरियों के प्रहार सहता है
और जीता रहता है
मरता नही है।
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