Saturday, August 20, 2011

एक और गांधीवादी

एक और बुड्ढा
बैठ ही गया ।
उपवास के दिन
मम्मी तो शांत रहती है
बुढऊ तो
भाषण भी दे रहे हैं .
जनहित में
जनलोकपाल बैठाने
अन्ना बैठा
बिल बनवाने

भ्रष्टाचार का
खट्टा अचार
लगा नहीं
किस एक को आज
भ्रष्ट है पूरा समाज
अजीब सा
ये वक़्त है
हर भ्रष्ट भी त्रस्त है
सब अस्त-व्यस्त हैं
फिर भी
वो साले मस्त हैं
बुड्ढे के पास
सबका बंदोबस्त है
तभी तो
उनकी हालत
पस्त है
उनकी नाक में
नकेल लगाने
अन्ना बैठा
बिल बनवाने ।

जय हो
जन की
जन गन
मन की
जनता के
जेहन की
जन-शासित
जनतंत्र की
गांधी बाबा के
यन्त्र की
सरकारी सर का
रौब गिराने
जनता की
ताकत दिखलाने
जन-मानस को
फिर हिलाने
गाँधी बाबा की
याद दिलाने
अन्ना बैठा
बिल बनवाने।


Tuesday, May 31, 2011

एक कविता

एक व्यर्थ की चिंता
या, मन का दोष
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण
तीनों की अर्थ-हीनता ।
अलंकारों के विच्छेद
से उत्पन्न होते
विरोधाभाषों को
मिलाता हुआ संधि का भेद ।
दूर, बहुत ही दूर
मचलती हुयी
एक किरण को
बनाता हुआ गूढ़
बहता नहीं
एक कवि का पसीना
कवि का तो बस
पिघलता हुआ ह्रदय-तुहिना

Tuesday, January 4, 2011

एक आभास

हमने कैद किया है किरणों को
अपने बुलंद इरादों से
जग को हतप्रभ कराने में
बस इतना ही अब बाकी है -
हमको सूरज बन जाना है ।

Sunday, October 19, 2008

एक दृश्य

हिमालय की गोद में
सामने दो पहाडीयां
अनंत के सौम्य पहरेदार
धौलागिरी के चमचमाते शिखर
की ओर द्वार सा बनाती हैं
और बगल में एक झरना
मानो शिव-पथ के उत्तुंग रक्षक
को जलार्पण कर रहा हो ।
शंख-नाद करती
नीचे उबल रही
गर्त सी मैली काली-गण्डकी
- बड़े आवेग से
असंख्य दूधिया धारों को लीलती
सर पटकती दौड़ रही है ।

Tuesday, August 26, 2008

एक प्रलय

साल भर सूखे में
जमीन से बहुत ऊपर की
राजनीति चलाने वाले
प्रांत के सबसे बड़े मंत्री जी ने
जब हवाई सर्वेक्षण में
बहुत ऊपर से
नदी का
सालाना बरसाती तांडव देखा
तो दहल से गए
समझ में नही आया
कि क्या करें क्या कहें
चिल्लाने लगे
'प्रलय आ गया प्रलय आ गया'
दस-ग्यारह महीने को
ससुराल गया था
वापस आ गया है
कुमार साहब को
बता कर गया था
साहब ने क्या किया
साहब तो अपने में व्यस्त थे
चोरी चमारी मसले सरकारी
नदियाँ तो
फैलाती सिकुड़ती रहती हैं
जनता को पता है
गणतंत्र के संविधान से
बहुत पहले से
प्रलय आता रहा है
अतिथि नहीं
तगादे को निकला
सूदखोर महाजन बन कर
दे दो उसको
जो उसका निकलता है
दिखा दो रास्ता
चला जायेगा
मुख्यमंत्री जी को
यह क्यों नही समझ आता है
अपने भय से परे
एक संकल्प क्यों नही करते
ऊपर से देख कर
कब तक बदहवास होवेंगे
थोडी जमीन तो मापें
देख लेंगे कि
इसी प्रलय में
लाखों करोड़ों मरते जीते
उन जैसे कुछ को
वोट देने के लिए
ख़ुद को बनाए रखते हैं
क्या उनका मुखिया
हर वर्ष उन्हें
सबकुछ छोड़ कर
अन्यत्र भाग जाने कि
सलाह देगा
मौत और महाजन
तो आते ही रहेंगे
उनको रास्ता तो
हमें ही दिखाना होगा
हवा से उतर कर
जमीन को पकड़ना पड़ेगा
देवेन्द्र के इस प्रलय को
काश ये मानवेन्द्र
औकार दिखा पाते
जकड देते अपने इरादों से
पकड़ लेते इसे
अपनी धमनियों में
हिला देतें
पर जनाब तो
सीधे हिल जाते हैं
एक अदनी इठलाती नदी के
बाढ़ को
एक विध्वंसकारी प्रलय बना
अपना मन और
अपनी जिम्मेदारी को
छोटा करते हैं
कितनी घटिया बात है





Thursday, April 10, 2008

एक आम आदमी

एक आम आदमी
अक्सर बहुत ही आम होता है
छोटे दायरों में
छोटी छोटी जरूरतें
और उतने ही छोटे तरीकोंवाला -
एक छोटे से कर्मचारी की
छोटी सी जेब में
एक छोटा सा नोट
छोटी सी एक सुविधा के लिए
सरकाने सा एक छोटा हथकंडा
एक छोटे आदमी का ही रहा है
बड़े लोगों की बड़ी बातें
जो आम है वह तो छोटा है
जो छोटा है वह आम है
आम छोटे-छोटे काम करेगा

छोटे से कमरे में रहेगा
छोटे से संडास में हगेगा
छोटी गाड़ियों में चढ़ेगा
छोटी बोतलें खरीदेगा
छोटे अरमान गढेगा
बडे का दहेज़ ले छोटी को देगा
खूब गुणा-भाग करेगा
खाकी सफ़ेद काली
हर वर्दी से डरेगा
खूब सलामी जड़ेगा
तंत्र को मजबूत करेगा
हर अनुचित करतूत करेगा
निन्यानबे फीसदी झूठ कहेगा

हर ग्रहण पर जम के रोयेगा
बाद में उसके खूब सोयेगा
खासियत के नित स्वप्न बुनेगा
बन कर ख़ास और गिरेगा
सब के सर पे चढ़ा फिरेगा
कुर्सी पकड़ा तो नहीं हिलेगा
समय देकर भी नहीं मिलेगा
मिल गया तो भी नहीं खिलेगा
खिल गया तब तो ख़बर खोजेगा
ख़बरों में आकर ढोंग रचेगा
हाथ जोड़ कर नमन करेगा
लम्बी लम्बी बात बकेगा
अपना छोटा सा साम्राज्य रखेगा
पर ख़ुद को बिल्कुल आम कहेगा
एक आम आदमी बस आम रहेगा

Monday, March 31, 2008

एक उजड़ता शांग्री-ला

इधर धरती पर
नीवें तो बढ़ रही हैं
लेकिन दुनिया की छत
लगातार ढह रही है
लाल पठारों की
दुरम्य जमीं पर भी
जमीं के सबसे शांत वाशिन्दें
अपने तरीके से
नहीं जी सकते
गलती सिर्फ़ इतनी
कि उनकी जमीं
कम्बख्त चीन से
सटी हुयी है
उनका धर्म
उनकी संस्कृति
उनके अधिकार
उनकी भक्ति
सब चीनी कृपा पर
भोला भाला दलाई
पड़ोसी की कृपा पर
सिर्फ़ जी सकता है
सबकी सहानूभूतियाँ लेता
अपनी असह्य पीड़ा को
अपनी करुणा में
छुपाता फिरता है
बाहर वाले सब
सिर्फ़ कहते हैं
चीनी चासनी में
सब घुल गए हैं
जकड गए हैं
इस चपटी चासनी
की मिठास
ऐसे सीप गयी हैं अन्दर
कि बाकी की पूरी दुनिया
एक निष्ठावान तमाशबीन
बन कर रह गयी है
हम सुनते हैं चुपचाप
जब ये माओ की नाजायज औलादें
एक संत को गाली देतीं हैं
उनके कपड़े उनके जूते
उनकी चड्ढी उनके कंडोम
उनकी गेंदें उनके बल्ले
उनकी कुर्सी उनका फ़ोन
सब तो उन्ही सालों का है
क्या बिगाड़ लेंगे उनका
उनके बम भी खतरनाक है
एक बड़ी-सी लाल सेना है
वो कंट्रोल में हैं
सब बैठे शांति से
या कभी कभी लच्छेदार
बेमानी-सी बातें करें
उनकी आंखो से
उनकी दरिंदगी का
नज़ारा ज़रा गौर से देखें
बूढे लामा की असहायता पर
दो चार आंसू भी बहा लें
उखाड़ क्या पायेंगे
साम्यवादी दरिंदों ने
पूंजीपति नक्कालों को
उनके ही खेल में
मात दे डाली है
मातम मत मनाओ दुनिया
छत से हमारे
चासनी टपक रही है
उजड़ जाए शांग्री-ला
घर अपने चीनी
रोशनी चमक रही है ।