Tuesday, November 27, 2007

एक मेला

एक बहुत बड़ा मेला लगता है
कहने को पशुओं का
पर भला
जानवरों को मेले से क्या मतलब
मेला तो
मनुष्यों का है
- रंग-बिरंगे लोग
रंग बिरंगी दुकाने लगाते हैं
सपने सजाते हैं
और हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, कुत्ते, चिडिया आदि
खरीदने बेचने के बहाने
गज-ग्राह की युद्धस्थली पर
मिलजुल कर मजा करते हैं।
थिएटर देखते हैं
जिसमे भाँती-भाँती की
सुडौल और बेडौल लडकियां
फूहड़ गानों पे थिरकती हैं
गंवई लड़के
उनपर चिट्ठियाँ, गुटखे, कपडे, दिल आदि
फेंकते हैं।
जादूगर
अपना तिलस्म
बीछाते हैं
और हाथ की सफाई से
खूब पैसा बटोरते हैं।
झूलेवाले
पुराने खटारे झूलों पर
बच्चे बूढों को
बेखौफ झुलाते हैं
लोग ख़ुशी से
किल्लारियाँ मारते हैं।
तरह तरह के पकवान
सजते हैं
टेंट के होटलों में
उछले दामों पर
धूल मे सने
छोले भटूरे, मिठाईयां, झींगा, मुर्गे आदि
लोग चाव से खाते हैं
दो बड़ी नदियों के
संगम पर बसे इस मेले में
ताजी मछलियाँ नही मिलती लेकिन
आंध्रा के बर्फ में जमे
टुकडों से ही संतोष करना पड़ता है।
और भी ना जाने कितनी चीज़ें
मिलती है मेले मे
घर-गृहस्थी की वस्तुएं, सस्ते आभूषण, साज-सज्जा के सामन आदि
और
अल्कतरे की घिरनी और सीटी भी
मानो सबकुछ है यहाँ
और सबकुछ चलता है
संतो के प्रवचन से लेकर
चोर पाकिटमारो
की कलाकारी तक.
दूर दराज से
लोग आते है मेले मे
सडको पर खुले मे
सोते हैं
आसपास की धरती को
अपने निष्काश से
खादित करते हैं
सुबह शाम
और दिन में
प्रशासन
निष्कासित गंदगी को
मिटटी से ढँक कर
चूने से चिन्हित कर देता है
इतनी भीड़ में भी
कदमों तले मल नही आता
लड़ाईयां भी नही होती
रेप खून और अपहरण भी नही
पशु तो सिर्फ बिकते हैं यहाँ
लाखों-लाख के सौदे
चुपचाप
कर लिए जाते हैं
लोग मस्त होकर
घर जाते हैं
और इंसानों का यह मेला
चलता रहता है
साल दर साल.