Monday, March 31, 2008

एक उजड़ता शांग्री-ला

इधर धरती पर
नीवें तो बढ़ रही हैं
लेकिन दुनिया की छत
लगातार ढह रही है
लाल पठारों की
दुरम्य जमीं पर भी
जमीं के सबसे शांत वाशिन्दें
अपने तरीके से
नहीं जी सकते
गलती सिर्फ़ इतनी
कि उनकी जमीं
कम्बख्त चीन से
सटी हुयी है
उनका धर्म
उनकी संस्कृति
उनके अधिकार
उनकी भक्ति
सब चीनी कृपा पर
भोला भाला दलाई
पड़ोसी की कृपा पर
सिर्फ़ जी सकता है
सबकी सहानूभूतियाँ लेता
अपनी असह्य पीड़ा को
अपनी करुणा में
छुपाता फिरता है
बाहर वाले सब
सिर्फ़ कहते हैं
चीनी चासनी में
सब घुल गए हैं
जकड गए हैं
इस चपटी चासनी
की मिठास
ऐसे सीप गयी हैं अन्दर
कि बाकी की पूरी दुनिया
एक निष्ठावान तमाशबीन
बन कर रह गयी है
हम सुनते हैं चुपचाप
जब ये माओ की नाजायज औलादें
एक संत को गाली देतीं हैं
उनके कपड़े उनके जूते
उनकी चड्ढी उनके कंडोम
उनकी गेंदें उनके बल्ले
उनकी कुर्सी उनका फ़ोन
सब तो उन्ही सालों का है
क्या बिगाड़ लेंगे उनका
उनके बम भी खतरनाक है
एक बड़ी-सी लाल सेना है
वो कंट्रोल में हैं
सब बैठे शांति से
या कभी कभी लच्छेदार
बेमानी-सी बातें करें
उनकी आंखो से
उनकी दरिंदगी का
नज़ारा ज़रा गौर से देखें
बूढे लामा की असहायता पर
दो चार आंसू भी बहा लें
उखाड़ क्या पायेंगे
साम्यवादी दरिंदों ने
पूंजीपति नक्कालों को
उनके ही खेल में
मात दे डाली है
मातम मत मनाओ दुनिया
छत से हमारे
चासनी टपक रही है
उजड़ जाए शांग्री-ला
घर अपने चीनी
रोशनी चमक रही है ।