Monday, March 17, 2008

एक मजाक

सरकारी आंकडों को गर मानें
तो औसतन रोज सोलह बच्चे
ख़ुद को मार लेते हैं
परीक्षा के डर से
उसके तीगुने से ज़्यादा किसान
खत्म कर लेते हैं ख़ुद को
सरकारी हिसाब से
गरीबी से मर के
सिर्फ़ तीन-चार जानें जाती हैं
हर रोज कस्टडी में
गर उनकी मानें तो
चुपचाप सिहर के
गैर कानूनी गिरफ्तारियां
जरूर होती हैं हजारों में
सब जानते हैं
बिना वजह के
बस कुछ सौ रेप होते हैं
हर दिन
किसी ने अंदाजा लगाया
गुणा-भाग कर के
उसमें से हर सत्तरवां ही
रिपोर्ट लिखाते हैं
यह भी बताया कि
समाज और पुलिस के भय से
अजीब तो यह है कि
सिर्फ़ बीस फीसदी को
न्याय मिलता है
अपनी ज़िंदगी दूभर कर के
शत-प्रतिशत रिक्शे और टेम्पूवाले
हर दिन अपना आत्मसम्मान खोते हैं
मोटे मोटे हवलदारों के
गंदे डंडों से लड़ के
नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा लोग
जो कभी काबिल हुआ करते थे
मर से जाते हैं
इस तंत्र में पड़ के ।


प्रशासनिक अधिकारी
नीति से परे राजनीतिज्ञ
न्याय की कुर्सी से चिपके जज मजिस्ट्रेट
अफसर पुलिस के -
हर किसी ने जिसने
समाज के इन दलालों को भोगा
बदल सा जाता है
अविश्वास से भर के
इस घिनौने चक्रव्यूह में फंसा
हर एक शख्श
उतना ही घिनौना बन जाता है
शायद रगड़ के
हम ये सब जानते हैं
पर कुछ नहीं करते
बैठे रहते हैं
हाथ पर हाथ धर के
आंकडे निकालते हैं
उन्हें दस बार सुधारते हैं
रिपोर्टों में सजाते हैं
जी भर के
और, व्यवस्थाओं का यह गन्दा मजाक
बेरोक चलता जाता है
खुले कमरों में
हमारे ही घर के ।