Monday, February 10, 2020

एक उद्गार

मैं पक गया हूँ
मैं थक गया हूँ
हाँ, मैं सटक गया हूँ
मुझे क्षोभ है
उन सभी
समझ के ठेकेदार हरामियों से
जिन्हें मेरी घुटी कुंठाओं
का मोल नहीं है। 
दिल और दिमाग से
बिक़े  हुए
क्या कभी समझ पाएंगे
अपनी जमीं पर
अपना हक़ पाने का जूनून। 
क्या वो कभी समझेंगे
कि कायरता
एक प्रदर्शन में
पुलिस के चंद डंडे खाने भर से
नहीं ढल जाती।
सहस्त्राब्दियों के अपमान
के विरोध की
हर आवाज़ को दबाने
का हर बौद्धिक प्रयत्न
उन्हें बस छोटा करता है।
और, मैं तंग आ गया हूँ
छोटे-छोटे इन कीड़ों के बीच
जुगाली करते। 

ये मेरी जमीं है
और, नहीं,
तुम्हारा कोई अधिकार नहीं इसपर।
अपनी संवेदना कहीं और दिखाओ
जाओ, तुम कहीं और गाओ
जाओ, कहीं और बजाओ
किसी और को सुनाओ।
नहीं चाहिए तुम्हारा ज्ञान
तुम्हारा अभिमान
तुम्हारे कीर्तिमान।
तुम्हारी क्रान्ति बेमानी है
क्योकि उसने
मुझसे हठ ठानी है। 
तुम उखड़ोगे
क्योकि मुझे बसना है
और, तुम्हें ठोक कर 
मुझे हंसना है। 


एक वाक़या

खबर पढ़ी कि
दो दिन पहले
एक लौंडे ने
अपने बुढऊ को
दिन भर घर में बंद रखा
ये सोच कर कि
बुढ्ढे  को
क्या समझ जमाने की।
बुढ्ढा ख़ामख़ा
एक क्रान्ति रोकेगा। 
अपने धर्म
और अपने राष्ट्र
के प्रति अपने बेतुके जुनून  को
अपनी उँगलियों के
प्रयोग से
अपने मत में बदलेगा।
आजादी के बहत्तर साल बाद
भला ये भी कोई समय है
ऎसी बेहूदा सोच की।

इक्कीसवीं सदी तो
कमाने की है,
खाने की है,
जगने और जगाने की है।
ये वो सदी है
जिसमें हमारे संस्कार
पर भारी पड़ते हैं
हमारे भाव उदार।
हमारी नई-नई समझ के आगे
भला क्यों टिकें
इन दकियानूसी, घिसे-पिटे
जमीनी जाहिलों के विचार!