Monday, February 10, 2020

एक वाक़या

खबर पढ़ी कि
दो दिन पहले
एक लौंडे ने
अपने बुढऊ को
दिन भर घर में बंद रखा
ये सोच कर कि
बुढ्ढे  को
क्या समझ जमाने की।
बुढ्ढा ख़ामख़ा
एक क्रान्ति रोकेगा। 
अपने धर्म
और अपने राष्ट्र
के प्रति अपने बेतुके जुनून  को
अपनी उँगलियों के
प्रयोग से
अपने मत में बदलेगा।
आजादी के बहत्तर साल बाद
भला ये भी कोई समय है
ऎसी बेहूदा सोच की।

इक्कीसवीं सदी तो
कमाने की है,
खाने की है,
जगने और जगाने की है।
ये वो सदी है
जिसमें हमारे संस्कार
पर भारी पड़ते हैं
हमारे भाव उदार।
हमारी नई-नई समझ के आगे
भला क्यों टिकें
इन दकियानूसी, घिसे-पिटे
जमीनी जाहिलों के विचार!

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