Tuesday, August 26, 2008

एक प्रलय

साल भर सूखे में
जमीन से बहुत ऊपर की
राजनीति चलाने वाले
प्रांत के सबसे बड़े मंत्री जी ने
जब हवाई सर्वेक्षण में
बहुत ऊपर से
नदी का
सालाना बरसाती तांडव देखा
तो दहल से गए
समझ में नही आया
कि क्या करें क्या कहें
चिल्लाने लगे
'प्रलय आ गया प्रलय आ गया'
दस-ग्यारह महीने को
ससुराल गया था
वापस आ गया है
कुमार साहब को
बता कर गया था
साहब ने क्या किया
साहब तो अपने में व्यस्त थे
चोरी चमारी मसले सरकारी
नदियाँ तो
फैलाती सिकुड़ती रहती हैं
जनता को पता है
गणतंत्र के संविधान से
बहुत पहले से
प्रलय आता रहा है
अतिथि नहीं
तगादे को निकला
सूदखोर महाजन बन कर
दे दो उसको
जो उसका निकलता है
दिखा दो रास्ता
चला जायेगा
मुख्यमंत्री जी को
यह क्यों नही समझ आता है
अपने भय से परे
एक संकल्प क्यों नही करते
ऊपर से देख कर
कब तक बदहवास होवेंगे
थोडी जमीन तो मापें
देख लेंगे कि
इसी प्रलय में
लाखों करोड़ों मरते जीते
उन जैसे कुछ को
वोट देने के लिए
ख़ुद को बनाए रखते हैं
क्या उनका मुखिया
हर वर्ष उन्हें
सबकुछ छोड़ कर
अन्यत्र भाग जाने कि
सलाह देगा
मौत और महाजन
तो आते ही रहेंगे
उनको रास्ता तो
हमें ही दिखाना होगा
हवा से उतर कर
जमीन को पकड़ना पड़ेगा
देवेन्द्र के इस प्रलय को
काश ये मानवेन्द्र
औकार दिखा पाते
जकड देते अपने इरादों से
पकड़ लेते इसे
अपनी धमनियों में
हिला देतें
पर जनाब तो
सीधे हिल जाते हैं
एक अदनी इठलाती नदी के
बाढ़ को
एक विध्वंसकारी प्रलय बना
अपना मन और
अपनी जिम्मेदारी को
छोटा करते हैं
कितनी घटिया बात है