Sunday, October 19, 2008

एक दृश्य

हिमालय की गोद में
सामने दो पहाडीयां
अनंत के सौम्य पहरेदार
धौलागिरी के चमचमाते शिखर
की ओर द्वार सा बनाती हैं
और बगल में एक झरना
मानो शिव-पथ के उत्तुंग रक्षक
को जलार्पण कर रहा हो ।
शंख-नाद करती
नीचे उबल रही
गर्त सी मैली काली-गण्डकी
- बड़े आवेग से
असंख्य दूधिया धारों को लीलती
सर पटकती दौड़ रही है ।

Tuesday, August 26, 2008

एक प्रलय

साल भर सूखे में
जमीन से बहुत ऊपर की
राजनीति चलाने वाले
प्रांत के सबसे बड़े मंत्री जी ने
जब हवाई सर्वेक्षण में
बहुत ऊपर से
नदी का
सालाना बरसाती तांडव देखा
तो दहल से गए
समझ में नही आया
कि क्या करें क्या कहें
चिल्लाने लगे
'प्रलय आ गया प्रलय आ गया'
दस-ग्यारह महीने को
ससुराल गया था
वापस आ गया है
कुमार साहब को
बता कर गया था
साहब ने क्या किया
साहब तो अपने में व्यस्त थे
चोरी चमारी मसले सरकारी
नदियाँ तो
फैलाती सिकुड़ती रहती हैं
जनता को पता है
गणतंत्र के संविधान से
बहुत पहले से
प्रलय आता रहा है
अतिथि नहीं
तगादे को निकला
सूदखोर महाजन बन कर
दे दो उसको
जो उसका निकलता है
दिखा दो रास्ता
चला जायेगा
मुख्यमंत्री जी को
यह क्यों नही समझ आता है
अपने भय से परे
एक संकल्प क्यों नही करते
ऊपर से देख कर
कब तक बदहवास होवेंगे
थोडी जमीन तो मापें
देख लेंगे कि
इसी प्रलय में
लाखों करोड़ों मरते जीते
उन जैसे कुछ को
वोट देने के लिए
ख़ुद को बनाए रखते हैं
क्या उनका मुखिया
हर वर्ष उन्हें
सबकुछ छोड़ कर
अन्यत्र भाग जाने कि
सलाह देगा
मौत और महाजन
तो आते ही रहेंगे
उनको रास्ता तो
हमें ही दिखाना होगा
हवा से उतर कर
जमीन को पकड़ना पड़ेगा
देवेन्द्र के इस प्रलय को
काश ये मानवेन्द्र
औकार दिखा पाते
जकड देते अपने इरादों से
पकड़ लेते इसे
अपनी धमनियों में
हिला देतें
पर जनाब तो
सीधे हिल जाते हैं
एक अदनी इठलाती नदी के
बाढ़ को
एक विध्वंसकारी प्रलय बना
अपना मन और
अपनी जिम्मेदारी को
छोटा करते हैं
कितनी घटिया बात है





Thursday, April 10, 2008

एक आम आदमी

एक आम आदमी
अक्सर बहुत ही आम होता है
छोटे दायरों में
छोटी छोटी जरूरतें
और उतने ही छोटे तरीकोंवाला -
एक छोटे से कर्मचारी की
छोटी सी जेब में
एक छोटा सा नोट
छोटी सी एक सुविधा के लिए
सरकाने सा एक छोटा हथकंडा
एक छोटे आदमी का ही रहा है
बड़े लोगों की बड़ी बातें
जो आम है वह तो छोटा है
जो छोटा है वह आम है
आम छोटे-छोटे काम करेगा

छोटे से कमरे में रहेगा
छोटे से संडास में हगेगा
छोटी गाड़ियों में चढ़ेगा
छोटी बोतलें खरीदेगा
छोटे अरमान गढेगा
बडे का दहेज़ ले छोटी को देगा
खूब गुणा-भाग करेगा
खाकी सफ़ेद काली
हर वर्दी से डरेगा
खूब सलामी जड़ेगा
तंत्र को मजबूत करेगा
हर अनुचित करतूत करेगा
निन्यानबे फीसदी झूठ कहेगा

हर ग्रहण पर जम के रोयेगा
बाद में उसके खूब सोयेगा
खासियत के नित स्वप्न बुनेगा
बन कर ख़ास और गिरेगा
सब के सर पे चढ़ा फिरेगा
कुर्सी पकड़ा तो नहीं हिलेगा
समय देकर भी नहीं मिलेगा
मिल गया तो भी नहीं खिलेगा
खिल गया तब तो ख़बर खोजेगा
ख़बरों में आकर ढोंग रचेगा
हाथ जोड़ कर नमन करेगा
लम्बी लम्बी बात बकेगा
अपना छोटा सा साम्राज्य रखेगा
पर ख़ुद को बिल्कुल आम कहेगा
एक आम आदमी बस आम रहेगा

Monday, March 31, 2008

एक उजड़ता शांग्री-ला

इधर धरती पर
नीवें तो बढ़ रही हैं
लेकिन दुनिया की छत
लगातार ढह रही है
लाल पठारों की
दुरम्य जमीं पर भी
जमीं के सबसे शांत वाशिन्दें
अपने तरीके से
नहीं जी सकते
गलती सिर्फ़ इतनी
कि उनकी जमीं
कम्बख्त चीन से
सटी हुयी है
उनका धर्म
उनकी संस्कृति
उनके अधिकार
उनकी भक्ति
सब चीनी कृपा पर
भोला भाला दलाई
पड़ोसी की कृपा पर
सिर्फ़ जी सकता है
सबकी सहानूभूतियाँ लेता
अपनी असह्य पीड़ा को
अपनी करुणा में
छुपाता फिरता है
बाहर वाले सब
सिर्फ़ कहते हैं
चीनी चासनी में
सब घुल गए हैं
जकड गए हैं
इस चपटी चासनी
की मिठास
ऐसे सीप गयी हैं अन्दर
कि बाकी की पूरी दुनिया
एक निष्ठावान तमाशबीन
बन कर रह गयी है
हम सुनते हैं चुपचाप
जब ये माओ की नाजायज औलादें
एक संत को गाली देतीं हैं
उनके कपड़े उनके जूते
उनकी चड्ढी उनके कंडोम
उनकी गेंदें उनके बल्ले
उनकी कुर्सी उनका फ़ोन
सब तो उन्ही सालों का है
क्या बिगाड़ लेंगे उनका
उनके बम भी खतरनाक है
एक बड़ी-सी लाल सेना है
वो कंट्रोल में हैं
सब बैठे शांति से
या कभी कभी लच्छेदार
बेमानी-सी बातें करें
उनकी आंखो से
उनकी दरिंदगी का
नज़ारा ज़रा गौर से देखें
बूढे लामा की असहायता पर
दो चार आंसू भी बहा लें
उखाड़ क्या पायेंगे
साम्यवादी दरिंदों ने
पूंजीपति नक्कालों को
उनके ही खेल में
मात दे डाली है
मातम मत मनाओ दुनिया
छत से हमारे
चासनी टपक रही है
उजड़ जाए शांग्री-ला
घर अपने चीनी
रोशनी चमक रही है ।

Monday, March 17, 2008

एक मजाक

सरकारी आंकडों को गर मानें
तो औसतन रोज सोलह बच्चे
ख़ुद को मार लेते हैं
परीक्षा के डर से
उसके तीगुने से ज़्यादा किसान
खत्म कर लेते हैं ख़ुद को
सरकारी हिसाब से
गरीबी से मर के
सिर्फ़ तीन-चार जानें जाती हैं
हर रोज कस्टडी में
गर उनकी मानें तो
चुपचाप सिहर के
गैर कानूनी गिरफ्तारियां
जरूर होती हैं हजारों में
सब जानते हैं
बिना वजह के
बस कुछ सौ रेप होते हैं
हर दिन
किसी ने अंदाजा लगाया
गुणा-भाग कर के
उसमें से हर सत्तरवां ही
रिपोर्ट लिखाते हैं
यह भी बताया कि
समाज और पुलिस के भय से
अजीब तो यह है कि
सिर्फ़ बीस फीसदी को
न्याय मिलता है
अपनी ज़िंदगी दूभर कर के
शत-प्रतिशत रिक्शे और टेम्पूवाले
हर दिन अपना आत्मसम्मान खोते हैं
मोटे मोटे हवलदारों के
गंदे डंडों से लड़ के
नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा लोग
जो कभी काबिल हुआ करते थे
मर से जाते हैं
इस तंत्र में पड़ के ।


प्रशासनिक अधिकारी
नीति से परे राजनीतिज्ञ
न्याय की कुर्सी से चिपके जज मजिस्ट्रेट
अफसर पुलिस के -
हर किसी ने जिसने
समाज के इन दलालों को भोगा
बदल सा जाता है
अविश्वास से भर के
इस घिनौने चक्रव्यूह में फंसा
हर एक शख्श
उतना ही घिनौना बन जाता है
शायद रगड़ के
हम ये सब जानते हैं
पर कुछ नहीं करते
बैठे रहते हैं
हाथ पर हाथ धर के
आंकडे निकालते हैं
उन्हें दस बार सुधारते हैं
रिपोर्टों में सजाते हैं
जी भर के
और, व्यवस्थाओं का यह गन्दा मजाक
बेरोक चलता जाता है
खुले कमरों में
हमारे ही घर के ।

Wednesday, March 5, 2008

एक अजीब बात

इस अधमरे शहर में
आधे मरे भरे पड़े हैं
मुर्दों को वो जला देते हैं
जीवित को मार देते हैं
और ख़ुद जीने का
वीभत्स ढोंग रचते हैं
उनमें से हर अधमरा
तेजी से कुलबुलाता है
अन्य से नज़र मिलते ही -
जीने से ज़्यादा
एक जीवित छवि ज़रूरी है
जो कुछ भी गड़बड़ हो
ज़रा छुप के हो
बाहर और भीतर के बीच का
घटिया विरोधाभास
उनके लिए
एक घनचक्कर बन जाता है
जब कुछ करने की बारी आती है
- गाली से उनको कष्ट है
पुलिस की गाली
सह लेते हैं लेकिन
पता है ग़लत है
रह लेते हैं लेकिन
ज़िंदगी की कमजोरी
से ग्रस्त है जीवन
इसीलिए
ताक़त खोजते हैं
छोटी से छोटी जिम्मेदारी का
बड़े से बड़ा
बदइस्तेमाल खोजते हैं
वो सब सोचते हैं
ऊपर और नीचे देखते हैं
अपने अधकुचले आत्म-सम्मान को
अपने घरों में,
अपने मातहतों पर,
अपने से नीचे पडी गंदगी,
जिस किसी पर
जहाँ भी हो जाए
थोड़ा चार्ज कर लेते हैं
खीसें निपोरते आगे बढ़ते हैं
किसी और से खाते हैं
किसी और को खिलाते हैं
कहीं और दुम हिलाते हैं
हर घड़ी
एक क्रांति दबाते हैं
हर एक मौका खोते जाते हैं
हर बदलाव से डरते हैं
फिर भी घमंड करते हैं
बड़ी अजीब बात है ।

Wednesday, February 20, 2008

एक नाटक

बीते दिनों
इधर एक नाटक हुआ
पूरे शहर का
मंच बनाया गया
और सडकों के किनारे
दर्शकों को दूर रखने को
टेढी मेढ़ी
बल्लियाँ लगा दी गयी
बडे बडे
तोरण-द्वार लगाए गए
लंबे चौड़े
बोर्डों पर प्रचार हुआ ।
सबसे पहले
बहुत बड़ा हुजूम लेकर
एक कठपुतली आयीं
उन्हें राष्ट्रपति कहा गया
शेष किरदारों ने
सलामी दी
कठपुतली ने
हाथ जोड़ कर
ऐसे संवाद बोले
जिसे सिर्फ़ कलाकार ही सुन पाये
बाकी सब को
सड़कों पर
जहाँ तहां रोक कर
एक अलग तमाशा बनाया गया
जिसे किसी कलाकार ने
नहीं सुना
कठपुतली के जाते ही
एक दूर देश का
पुतला आया
जिसके पुरखों ने
सदियों पहले
यहाँ पर फांकापरस्ती किया था
उसने इधर की भाषा में
संवाद कहा
और कलाकारों का समूह
मदमस्त होकर झूमा
सारे पत्रकारों ने
पूरे खेल को
बहुत तन्मयता से
देखा और समझा
और जम के अपनी कलम तोड़ी
सुरक्षाकर्मियों ने भी
कलाकारी दिखाई
बड़ी सजगता से
ताल ठोक ठोक कर
ऐसा समां बंधा
कि सब बेखबर लगे रहे
तमाशबीनों का क्या था
वो बाहर लड़ते मरते
धक्के खाते रहे
पटाक्षेप का इंतज़ार
करते रहे
ऐसा भी कही हुआ है
कि दर्शकाधिकारों के लिए
कभी कोई नाटक रुका हो .






Thursday, February 7, 2008

एक विकराल घड़ी

टेलीविजन पर
नयी खबर चली है
एक विकराल घडी
नजदीक खड़ी है
ग्रह-गोचर
स्पष्ट कहता है
ख़तरे में पड़ी
सूरज की सत्ता है
कुम्भ के घर में
ज्योंही पहुचेगा
घर को उसके
शनि धर लेगा
राहू देगा
शनि का साथ
बिगाडेगा हर एक
बनी हुयी बात
ज्यों ज्यों समय
बढ़ता जाएगा
सूरज को छेड़ने
केतु जाएगा
शुक्र का मिलेगा
उसको साथ
मिलकर सब करेंगे
सत्यानाश
कुम्भ के जातक
जान ले यह अब
उनका अतिथि
बहुत है गड़बड़
लाना था
सुख तेज समृद्धि
ले आया
कष्टों मे वृद्धि
देख के उसकी
पीडा न्यारी
भयभीत हो गए हैं
नर और नारी
संगम पर मिलकर
कई बैठे हैं
ग्रहों की तुष्टि को
हवन हो रहे हैं
कहते हैं कि
घर टूटेंगे
देश विदेश में
सर फूटेंगे
प्रकृति करेगी
तांडव नृत्य
शेयेरों का होगा
टायँ-टायँ फिस्स
खबर पढ़ने-वाली ने
विश्वास से कहा था
एक सौ तीस साल पहले
ऐसा ही हुआ था
बताने ही जाती
वह कहानी सारी
कि आ जाती
ब्रेक की बारी
हुआ ऐसा
दो चार बार
और टूट गए अपने
संयम के तार
बढ़ा दिया
चैनल को आगे
सोचा जान लेंगे
इंटरनेट पर जाके
अब खोजते खोजते
आ गया है चक्कर
मिलता नही कुछ
किसी वेबसाइट पर
कुम्भ राशी का
जातक मैं भी
बैठा हूँ अब
थोडा सा डरकर
कोई कहीं से यह बता दे
हुआ क्या था
साल अठ्ठारह सौ अठहत्तर ।

Sunday, January 20, 2008

एक जीत

एक नयी बात हो गयी है
इतिहास रच गया है
जो हुआ सो बेजोड़ हुआ है
करोड़ो निराशाओं पर
पर अद्भुत आघात हुआ है
विस्फोटक हर्षोल्लास है
बेईमानों का दंभ टूटा है
जीत का रेकॉर्ड क्रम टूटा है
कंगारूओं की छलाँग थमी है
वाह ! कितनी ख़ुशी हुयी है

सालों तक अब नही मिलेगा
मस्ती का फिर ऐसा मौका
सोच के उन्मत्त नर और नारी
बात करते नही थकते
बटोर रहे हैं खुशहाली ।

Saturday, January 19, 2008

एक क्रिकेट मैच

बीते दिनों
एक क्रिकेट मैच हुआ
हार के बढ़ते क्रम ने
पूरे देश को एक कर दिया
हारने की आदत तो
पुरानी ही है अपनी
नया यह रहा कि
इस बार तेरह से हारे
ऐसा सोचा सबने
और लगे हल्ला करने
बयानबाजियां शुरू ही हुयी थी
कि विरोधियों ने
जख्म में मिर्ची लगा दिया
एक सरदार फिरकीबाज को
आनन-फानन नस्लवादी बना दिया
ऐसा भी कही होता है
'माँ की' और 'मंकी' में
जैसे कोई अंतर ही नही
सरेआम बेईमानियाँ
और ऐसे लांछन
वह भी हराने के बाद
पंद्रह लगातार जीतों से
संतोष नही था जालिमों को
सोलहवें के लिए इतना कुछ
हम कैसे चुप बैठ सकते थे
हमने अखबारों में बोला
मीटिंगों में हल्ला किया
घर लॉट आने की धमकी दी
बदले के जोश में
उनकी भी शिक़ायत की
सबको लगा कुछ तो होने वाला है
और हुआ भी
बारहवें और तेरहवें को
बदल दिया गया
और हम खुश हो गए
बेईमानों के सरदार से
सामना होते ही
हम अपने राष्ट्रपिता की
सभ्य संतान बन गए
सीनाजोरी का जवाब
बहुत तमाशा करके
गांधीगिरी से दे दिया
सब भूल कर
एक बार फिर हारने के लिए
कमर कस लिया ।

Sunday, January 13, 2008

एक लाख की कार

जमशेदजी के प्रपौत्र के पाँव
जमीन पर नही पड़ रहे
बधाईयों का तांता लगा है
देश-विदेश में खबर बनीहै
लखटकिया एक सपना सजा है
बरखुरदार बडे संतुष्ट लगते हैं
रिटायरमेन्ट की बात करते हैं
लोग-बाग़ भी बहुत खुश हैं
दो चक्कों पर सपरिवार
अपनी ज़िंदगी खीचने वाले
आशा का मधुर रस पी रहे हैं
वाह! क्या सपना सजा है ...
बडे लोगों की बड़ी-बड़ी बातें
तंग बेडौल रास्तों पे चलनेवाले
छोटे शहरों की बड़ी आबादी
कब से अपने सपने सजाने लगी
हमारे सपनों के सपने तो
रतन सरीखे रत्नों के ही हैं
नमन स्वपन-शिरोमणि
हम तमाम जामों में बैठ कर
आपके सपने का मजा लेते नही थकेंगे।

Friday, January 4, 2008

एक दर्द

दर्द की बात करें तो
दर्द में भी एक बात है
दर्द ना हो तो
हमदर्दी भी नही रहेगी
मानवता के अनेकों
अलग-थलग पड़े ब्रह्मांडों
के बीच का पुल भी
मिट जायेगा
दर्द के जाने का सुकून भी
नहीं रहेगा
फिर क्या मज़ा आएगा ?
दर्द का अस्तित्व
इसकी सत्ता को
आधार देता है -
दर्द है इसीलिए
यह सर्वोपरि है .
कहा जाए तो
दर्द ही अस्तित्व का
आधार है .

एक छोटा सा टुकडा
एक पतली सी नली से
निकलने की
कोशिश करता है
अब अगर दर्द ना हो
तब कैसी नली
और कैसा टुकडा
कौन यह जानना चाहेगा
कि दूध में भी
विष है
कि पालक से भी
खतरा है
कि मूत्र-विसर्जन
की भी अपनी एक
कला हो सकती है
की बचपन से सुनी
बडों की वह बात
कि दर्द के रिश्ते
बडे गहरे होते हैं
में वाकई सच है
एक दर्द ने फिर
यह अहसास दिलाया .
दर्दोपरांत मिली सहानुभूतियाँ
दर्द की एकसमग्रता नहीं तो क्या हैं ?

Tuesday, January 1, 2008

एक साल

क्या खूब गया
जो बीत गया
क्या साल रहा
एक जीवन में
एक दिशा मिली
एक दशा गया
नए सपनों का
निर्माण हुआ
कुछ जाने दुर्गम
पंथों पर
पैदल चलना
आसान हुआ ।
घरवाले डरे
शुभचिंतक बिगड़े
पर दिल अपनी ही
राह चला
निर्वासित जीवन
से उबकर
अपनों के
संग को
वो मचला।
दिल एक
नहीं था
ऐसे में
मन का भी
ऐसा ही
हाल हुआ
एक असफल विपस्सना
के पश्चात्
ज्ञान का यूँ
संचार हुआ
सब ढेर हुए
उसके अड़चन
नयी जागृति का
अहसास हुआ
जीवन की
गहमा-गहमी में
कर्तव्य-बोध का
भाष हुआ -
एक सुदूर गाँव की
गलियों और
घर में रौशन
चिराग हुआ
आजादी के
छः दशकों बाद
'तमकुहा' तम से
आजाद हुआ ।
क्या
खूब गया
जो बीत गया ...



* तमकुहा एक गाँव है जिसके निवासियों को अगस्त १५, २००७ को पहली बार बिजली नसीब हुई