Thursday, December 27, 2007

एक और रिक्शावाला

एक रिक्शेवाले ने
आज रुला दिया...
शर्म से
पानी-पानी हो गया मैं।
एक हट्टे-कट्टे
रंगरूट को
एक असहाय वृद्ध के
महीनों पहले टूटी टांग से
आधे पैडल पर
धीरे-धीरे खींचते देख
भला किसका दिल
द्रवित नही होगा।
पता नहीं कितने
रंगरूटों ने
उसे देख
उसपर अफ़सोस किया होगा
आधे पैडल की
वो धीमी गति
पता नही कितने दिलों के
तह में पहुँची होगी
पता नही कितनों ने
उसे पाँच ज्यादा दिया होगा।
पर उसकी मजबूरी कि
वह अभी भी
खींच रहा था
अपनी टूटी टांग से
आधे पैडल पर
दिलदारों को।
मैं इतना खुश हूँ कि
मेरे आँसू निकले
वह अब नही खींचेगा
किसी अन्य के बोझे को।

1 comment:

KESHVENDRA IAS said...

संवेदना से छलछलाती हुयी कविता...